हर दिन मैं कुछ न कुछ खो रहा हूँ
कभी घर से बहार रह कर घर को
कभी घर में रह कर बाहर को
कभी माँ के हाथ के खाने को
कभी पापा के सुबह उठाने को
कभी वो दोस्त अपना जो दोस्त था
कभी पीपल का पेड़ जो घर के बाहर था
कभी अपना स्कूल बचपन का
कभी घर के उस रास्ते को जहा पहुचने की जल्दी थी
हर दिन मैं कुछ न कुछ खो रहा हूँ।
कभी घर से बहार रह कर घर को
कभी घर में रह कर बाहर को
कभी माँ के हाथ के खाने को
कभी पापा के सुबह उठाने को
कभी वो दोस्त अपना जो दोस्त था
कभी पीपल का पेड़ जो घर के बाहर था
कभी अपना स्कूल बचपन का
कभी घर के उस रास्ते को जहा पहुचने की जल्दी थी
हर दिन मैं कुछ न कुछ खो रहा हूँ।
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